ये जून 1840 की बात है जब ब्रितानी युद्धपोतों के एक बेड़े ने चीन की पर्ल रीवर डेल्टा में जाकर युद्ध छेड़ दिया था. चीन के तटीय इलाकों की सुरक्षा व्यवस्था कमज़ोर थी. इस ब्रिताने हमले के सामने चीन ज़्यादा देर नहीं टिक सका और उसने घुटने टेक दिए.
ये पहला अफ़ीम युद्ध था जिसमें हज़ारों लोग मारे गए थे और वो भी मुक्त व्यापार के नाम पर. चीन में अफ़ीम का कारोबार एक फायदे का धंधा था लेकिन ये अवैध भी था. स्कॉटलैंड के दो लोग इस कारोबार से जुड़े हुए थे और युद्ध की शुरुआत में इन दोनों ने बड़ी भूमिका निभाई थी.
विलियम जार्डाइन पेशे से एक डॉक्टर थे और कारोबारी भी.
चाय से अफ़ीम
चीन के एक वेश्यालय में पहली मुलाकात के बाद जेम्स मैथेसन नाम के एक और कारोबारी विलियम के पार्टनर बन गए. 1832 में दोनों ने मिलकर जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी बनाई जिसका मुख्यालय दक्षिणी चीन का कैंटोन शहर था. कैंटोन को अब चीन के ग्वांझो के नाम से जाना जाता है.
चीन के केवल इसी इलाके में विदेशियों को कारोबार की इजाजत थी. वे चाय के बदले अफ़ीम का कारोबार करते थे. ब्रिटेन में चाय के लिए गज़ब की दीवानगी थी. 18वीं सदी के आखिर तक ब्रिटेन कैंटोन से 60 लाख पाउंड की चाय हर साल मंगाने लगा था.
चांदी में बिजनेस
लेकिन जल्द ही ब्रिटेन को इस कारोबार में दिक्कत पेश आने लगी क्योंकि चीन की शर्त ये थी कि वो चाय की कीमत के तौर पर केवल चांदी लेगा. ब्रिटेन ने चाय की कीमत के तौर पर नक्काशीदार बर्तन, वैज्ञानिक उपकरण और ऊनी कपड़े जैसी चीज़ें देने की पेशकश की. लेकिन चीन ने इसे लेने से इनकार कर दिया.
चीन के तत्कालीन सम्राट क़ियान लोंग ने किंग जॉर्ज तृतीय को एक पत्र में लिखा, “हमारे पास वो सारी चीजें हैं और बेहतर गुणवत्ता वाली. मैं ऐसी बेकार चीज़ों का कोई मूल्य नहीं समझता और आपके देश में बनी चीज़ों का हमारे यहां कोई इस्तेमाल नहीं है.”
अफीम की तस्करी
पचास सालों के दौर में ब्रिटेन ने चीन को 270 लाख पाउंड की कीमत के बराबर चांदी का भुगतान किया और इसके बदले उन्हें केवल 90 लाख पाउंड के सामान उन्हें बेच सका. ब्रिटेन के लिए चीन से आने वाली ये चाय धीरे-धीरे महंगी होने लगी और उन्हें वहां पैसा बनाने का कोई दूसरा रास्ता भी दिखाई नहीं देने लगा.
कम से कम क़ानूनी तौर पर तो ऐसा ही था. लेकिन भारत में मौजूद ब्रितानी कारोबारियों ने इसे एक मौके के तौर पर देखा. बंगाल के इलाके में अफ़ीम की पैदावार बड़े पैमाने पर होती थी. हालांकि चीन में अफ़ीम पर प्रतिबंध था बावजूद इसके कि चीनी चिकित्सा पद्धति में अफ़ीम का इस्तेमाल हज़ारों सालों से होता आ रहा था.
चीन में प्रतिबंध
लेकिन पंद्रहवीं सदी के आते-आते चीनी लोग इसे तंबाकू में मिलाकर नशे के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे थे. जल्द ही चीनी समाज का एक बड़े हिस्से को अफ़ीम की लत लग गई और वे इसकी गिरफ्त में आ गए. इसका सामाजिक दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा. अफ़ीम की लत का शिकार लोग इसके लिए अपनी कीमती चीज़ें बेचने लगे.
1729 में चीन के सम्राट योंगझेंग ने अफ़ीम की खरीद-बिक्री और नशे के तौर पर इसके इस्तेमाल पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी. लेकिन सौ साल गुज़र जाने के बाद चीनियों की अफीम के प्रति दीवानगी ज़रा सी भी कम नहीं हुई थी और अंग्रेजों ने उनकी इस लत का शोषण करना शुरू कर दिया था.
भारत का पूर्वी इलाका
साल 1836 आते-आते भारत से हर साल अफ़ीम की 30 हज़ार पेटियां चीन पहुंचने लगी थीं. जार्डाइन, मैथेसन एंड कंपनी का इस कारोबार के एक चौथाई हिस्से पर कब्जा था. चीन में अफ़ीम पर पाबंदी के सरकारी आदेश को तोड़कर ब्रिटेन ने चीन से अपनी आमदनी बढ़ाने का तरीका खोज निकाला था.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ हॉन्ग-कॉन्ग के प्रोफेसर जैन कैरोल के मुताबिक, “ब्रितानियों को ये एहसास हुआ कि भारत के पूर्वी इलाके में अफीम की बड़ी पैदावार होती है और चीन में इसकी तस्करी से काफी मुनाफ़ा कमाया जा सकता है.” और चीन के कैंटोन शहर की तटीय स्थिति से ये ब्रिटेन के लिए आसान हो गया था.
चीन की कार्रवाई
प्रोफेसर जैन कैरोल ने बताया, “वे छोटी नावों में अफ़ीम रखकर उसे आसानी से कैंटोन के तट पर पहुंचा देते थे. किनारे पर उनकी मदद के लिए वहां हमेशा कोई मौजूद होता था. आर्थिक लिहाज से उसे इसका खूब फायदा हो रहा था.”
लेकिन ब्रिटेन का इस तरह से क़ानून तोड़ना ज़्यादा समय तक छुपा नहीं रहा. 1839 में चीन के सम्राट डाओग्वांग ने नशीले पदार्थों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी. पश्चिमी कारोबारियों के ख़िलाफ़ छापेमारी का अभियान शुरू करने का आदेश दिया गया.
ब्रितानी सरकार
कैंटोन के 13 फैक्ट्रीज़ इलाके में स्थित गोदामों पर रेड डाले गए और चीनी सैनिकों ने इसे सील कर दिया. विदेशी कारोबारियों को सरेंडर करने के लिए चीनियों ने मजबूर कर दिया. चीन की इस कार्रवाई में 20 लाख पाउंड की कीमत के सामान ज़ब्त किए गए. इसमें अफ़ीम की 20 हजार पेटियां और 40 हज़ार ओपियम पाइप्स भी थे.
इस ज़ब्ती के बाद पेरशान विलियम जार्डाइन कैंटोन से लंदन के लिए रवाना हो गए जहां उन्होंने ब्रिटेन के विदेश मंत्री लॉर्ड पाल्मर्स्टॉन से चीन पर जवाबी कार्रवाई के लिए पैरवी की. अंग्रेज़ों को भारत से मिलने वाले राजस्व में अफ़ीम की बड़ी भूमिका थी, इसलिए ब्रितानी सरकार को चीन में नौसेना भेजने के फैसले में ज़्यादा वक्त नहीं लिया.
चीन की हार
जून, 1840 में ब्रिटेन ने 16 युद्धपोत और 27 जहाज चीन के पर्ल रीवर डेल्टा की तरफ रवाना कर दिए. इन जहाज़ों पर 4000 लोग सवार थे. इस बेड़े में लोहे से बना युद्धपोत नेमेसिस भी था जिसपर दो मील तक दागे जा सकने वाले रॉकेट लॉन्चर तैनात थे.
इस हमले के लिए हालांकि चीनी तैयार थे लेकिन ब्रितानी ताकत का मुकाबला करने की उनमें काबिलियत नहीं थी. उनके तोप ब्रिटेन के सामने चार से पांच घंटे तक ही टिक सकते थे. अगले दो सालों तक ब्रितानी नौसेना चीन के तटीय इलाकों से होती हुई शंघाई की तरफ बढ़ने लगी.
गैरबराबरी की संधि
अधिकांश चीनी सैनिक अफ़ीम की लत का शिकार थे और उन्हें हर जगह हार का सामना करना पड़ा. इस युद्ध में 20 से 25 हज़ार चीनी हताहत हुए जबकि ब्रिटेन ने 69 सैनिक गंवाएं. इस युद्ध के बाद चीन पूरी तरह से हिल गया था.
अगस्त 1842 में एचएमएस कॉर्नवालिस पर नानकिंग के पास चीनियों से अंग्रेज़ों का समझौता हुआ जिसे दुनिया ‘अनइक्वल ट्रीटी’ या ‘गैरबराबरी की संधि’ के नाम से जानती है.
चीन को पांच बंदरगाह विदेश व्यापार के लिए खोलना पड़ा और अफ़ीम के कारोबार से हुए नुकसान और युद्ध के हर्जाने के तौर पर उसने ब्रिटेन को दो करोड़ 10 लाख सिल्वर डॉलर अदा किए.
ब्रिटेन को इस संधि से हॉन्गकॉन्ग पर कब्जा मिला जिसका इस्तेमाल चीन में अफ़ीम का कारोबार बढ़ाने के लिए किया जाना था.
As published by BBC