हमारे खून में रेड ब्लड सेल्स, व्हाइट ब्लड सेल्स और पीला लिक्विड पदार्थ मौजूद होता है। इस पीले तरल पदार्थ को ही हम प्लाज्मा कहते हैं। प्लाज्मा में 92 फीसदी भाग पानी, प्रोटीन, ग्लूकोस मिनरल, हॉर्मोन्स और कार्बन डाइऑक्साइड होता है। प्लाज्मा थैरपी की बात करें तो जब एक पैथोजन जैसे कोरोना वायरस हमें संक्रमित करता है तो हमारा इम्यून सिस्टम एंटीबाडीज का उत्पादन करता है। ब्लड ट्रांसफ्यूजन की तरह ही यह थैरेपी ठीक हो चुके व्यक्ति से एंटीबॉडी को इकट्ठा करती है और बीमार व्यक्ति में समावेशित कर देती है। कोरोना से ठीक हुए किसी व्यक्ति का प्लाज्मा जब इंफेक्टेड व्यक्ति में जाता है तो यही एंटीबॉडीज उससे लड़ने में मदद करती हैं।
एंटीबॉडी क्या होती हैं?
एंटीबॉडी शरीर द्वारा उत्पन्न एक प्रोटीन है जिसे इम्युनोग्लोबुलिन भी कहा जाता है। यह हमें एंटीजन नामक बाहरी हानिकारक तत्वों से लड़ने में मदद करती हैं। इसका निर्माण इम्यून सिस्टम शरीर में वायरस को बेअसर करने के लिए करता है। कोरोना संक्रमण के बाद एंटीबॉडीज बनने में कई बार एक हफ्ते तक का वक्त लग सकता है। एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में हजारों की संख्या में एंटीबॉडीज होती हैं।
किस प्रकार दी जाती है प्लाज्मा थैरेपी? कौन दे सकता है प्लाज्मा?
प्लाज्मा थैरपी में जो व्यक्ति कोविड-19 बीमारी से ठीक हो चुका है, उससे खून निकाला जाता है। वायरस को बेअसर करने वाली एंटीबाडीज के लिए सीरम को अलग किया जाता है और उसकी जांच की जाती है। बता दें, कंविलिसेंट सीरम, किसी संक्रामक रोग से ठीक हो चुके व्यक्ति से मिला ब्लड सीरम है। ब्लड सीरम निकालने और रोगी को दिए जाने से पहले डोनर की जांच की जाती है। इसके लिए डोनर का स्वाब टेस्ट निगेटिव होनी चाहिए और संभावित डोनर पूरी तरह से स्वस्थ होना चाहिए। अगर आप कोविड से ठीक हुए हैं तो प्लाज्मा देने के लिए दो सप्ताह तक इंतजार करना चाहिए। इसके साथ डोनर को कम से कम 28 दिनों तक कोई लक्षण नहीं होने चाहिए।
वैक्सीनेशन से कैसे अलग है प्लाज्मा थैरेपी
जब कोई वैक्सीन लगाई जाती है तो हमारा इम्यून सिस्टम एंटीबाडीज का निर्माण करता है। बाद में जब कोई वैक्सीन लगवा चुका व्यक्ति संक्रमित होता है तो इम्यून सिस्टम, एंटीबॉडीज रिलीज करता है और इंफेक्शन को निष्प्रभावी बना देता है। वैक्सीन या टीका आजीवन के लिए हमें इम्यूनिटी देता है। वहीं एंटीबॉडी थैरेपी का प्रभाव तभी तक रहता है जब तक इंजेक्ट की गई एंटीबॉडीज खून में रहती हैं। यह हमें अस्थायी या केवल कुछ समय के लिए ही सुरक्षा दे सकती है।
क्या यह प्रभावी है ?
स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, हमारे पास बैक्टीरियल संक्रमण के खिलाफ काफी एंटीबायोटिक्स हैं। लेकिन, हमारे पास प्रभावी एंटीवायरल्स नहीं हैं। जब कभी कोई नया वायरल प्रकोप होता है तो इसके उपचार के लिए कोई दवा नहीं होती है। इसलिए, कंविलिसेंट सीरम का उपयोग किया जाता है। इसका उपयोग पिछली वायरल महामारियों के दौरान किया गया है। साल 2009-10 में जब एच1एन1 (H1N1) इन्फ्लूएंजा वायरस महामारी का प्रकोप आया था तब इंटेसिंव केयर की आवश्यकता वाले संक्रमित रोगियों का उपचार किया गया था। इस एंटीबॉडी ट्रीटमेंट के बाद, रोगियों में सुधार देखने को मिला था। इससे वायरल को बोझ कम हुआ और मृत्यु दर में कमी आई। प्लाज्मा थैरेपी का उपयोग 2018 में इबोला प्रकोप के दौरान भी किया गया था।
चुनौतियां क्या हैं?
भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने हाल ही में कहा कि कोरोना के इलाज में प्लाज्मा थैरेपी की भूमिका सीमित है। उन्होंने कहा, “प्लाज्मा थैरेपी से जुड़े शोध बताते हैं कि इससे ज्यादा फायदा नहीं है, इसकी भूमिका सीमित है”। वहीं, कोविड-19 जैसी महामारी में, जहां अधिकांश मरीज उम्रदराज हैं और हाइपरटेंशन, डायबिटीज और ऐसे अन्य रोगों से ग्रसित हैं, ठीक हो चुके सभी व्यक्ति स्वेच्छा से रक्त दान करने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
