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हिमालयी ​​ग्लेशियर पिघलकर बना रहे झीलें, ​वैज्ञानिकों ने जताई चिंता

​​हिमालयी क्षेत्रों में ​​​​ग्लेशियर झील ​की वजह से आने वाली ​​बाढ़ ​और उससे होने वाले नुकसान पर वैज्ञानिकों ने चिंता जताई है​। ​​इसी साल फरवरी में हुई उत्तराखंड आपदा को देखते हुए ​​मानसून के मौसम ​की समय सीमा का विस्तार ​किये जाने की भी आवश्यकता बताई गई ​है।​​​ वैज्ञा​​निकों ​का कहना है कि ​से​टेलाइट​ से मॉनिटरिंग​​ ​करके ही अचानक बाढ़ आने के खतरों से बचा जा सकता है​। ​​साथ ही ​बाढ़ ​आने ​से पहले चेतावनी ​देकर मानव जीवन को बचाने में मदद मिल सकती है।​​ ​​

दरअसल आईआईटी कानपुर के ​​वैज्ञानिकों ​ने ​​ग्लेशियल झील ​की वजह से बाढ़ के दौरान मानव ​​जीवन की क्षति कम करने के लिए भविष्य की रणनीति ​तय करने का सुझाव दिया है।​ आईआईटी, कानपुर के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ​. ​तनुज शुक्ला और भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से किए गए अध्ययन को अंतर​राष्ट्रीय पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित किया गया है।​

हिमालय में ​​ग्लेशियर तेजी से पिघलकर नई झीलें बना रहे
इस ​​अध्ययन में कहा गया है कि ​​​जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान​ बढ़ने के साथ ही अत्यधिक वर्षा ​में भी बढ़ोतरी हुई है​। पृथ्वी के ​’थर्ड पोल​’​ कहे जाने वाले हिमालयी क्षेत्र ग्रह के ध्रुवीय क्षेत्रों के बाहर सबसे बड़े हिमपात का ​कारण बनते हैं​।​ हिमालय में ​​ग्लेशियर तेजी से पिघलकर नई झीलें बना रहे हैं​​।​​ ​इसके अलावा तापमान ​बढ़ने ​और अत्यधिक वर्षा ​से हिमालयी क्षेत्र ​में विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक खतरों ​का डर बना रहता है जिसमें ग्लेशियर झील का प्रकोप ​यानी ​बाढ़ भी शामिल है।

ग्लेशियर झील से बाढ़ का प्रकोप​
​अध्ययन में कहा गया है कि​ ​​​ग्लेशियर झील से ​​बाढ़ का प्रकोप​ तब होता है जब या तो हिमाच्छादित झील के साथ प्राकृतिक बांध फट जाता है या जब झील का स्तर अचानक बढ़ जाता है​​​​।​ झील ​के किनारे ओवरफ्लो हो जा​ने से भी विनाशकारी ​​पानी का बहाव होता है​​।​

जलवायु परिवर्तन बन रहा कारण
उदाहरण के ​रूप में बताया गया है कि 2013 में ​​हिमस्खलन के कारण​ ​उत्तर भारत की चोराबाड़ी झील ​से अचानक आई बाढ़ से बोल्डर और मलबे ​के कारण नदी की घाटी नीचे बह गई, जिसके परिणामस्वरूप 5,000 से अधिक लोग मारे गए। ​​जलवायु परिवर्तन के साथ ​हिमालय​ क्षेत्र में ​इस तरह की घटनाओं ​के बार-बार होने ​की​ संभावना ​जताई गई ​है।​ हालांकि ​इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि ​दूरस्थ, चुनौतीपूर्ण हिमालयी इलाके और पूरे क्षेत्र में ​संचार ​कनेक्टिविटी की कमी ने प्रारंभिक बाढ़ चेतावनी प्रणाली के विकास को लगभग असंभव बना दिया है।

​​मानसून के मौसम ​की समय सीमा का विस्तार करने की जरूरत
अपने हाल के ​शोध के बाद वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि ​​मानसून के मौसम (जून-जुलाई-अगस्त) के दौरान पर्वतीय जल धाराओं में पिघले पानी का बहाव सबसे अधिक होता है।​ उत्तराखंड में चमोली जिले के जोशीमठ में 7 फरवरी को हुए हिमस्खलन के बाद​​ ​गंगा, धौली गंगा की सहायक नदी में ​​​​​ग्लेशियर​ के ​​पिघले पानी का अ​​चानक उछाल बताता है कि ​​मानसून के मौसम ​की समय सीमा का विस्तार करने की आवश्यकता है।​ ऊपरी धौली गंगा बेसिन में होने वाली तबाही वर्षा की घटनाओं के अलावा अन्य प्रक्रियाओं से जुड़ी होती है​​।​​हिमस्खलन​ या चट्टान भूस्खलन​ ​​की वजह से अचानक ​बाढ़ आने और ​ग्लेशियर​ के ​​पिघलने​ की वजह से बाढ़ आने के पीछे क्षेत्र की खतरनाक प्रोफाइल को समझना महत्वपूर्ण है​​​​​​।

​से​टेलाइट​ से मॉनिटरिंग​​ से कर सकते है बचाव
आईआईटी कानपुर ​के वैज्ञानिकों ने इस शोध के बाद सुझाव ​दिया ​है कि भविष्य में ​​ग्लेशियर झील में ​​बाढ़​ ​का खतरा कम करने ​के प्रयासों में उपग्रह आधारित निगरानी स्टेशनों के नेटवर्क का निर्माण शामिल होना चाहिए जो ​समय से जोखिम और वास्तविक समय ​की जानकारी दे सकें।​ वैज्ञानिकों का कहना है कि ​​उपग्रह नेटवर्क के साथ निगरानी उपकरणों ​से न केवल दूरस्थ स्थानों ​बल्कि ​घाटियों, चट्टानों और ढलानों जैसे ​उन ​​दुर्गम इलाकों ​के बारे में भी जानकारी मिल सकेगी जहां ​संचार कनेक्टिविटी का अभाव है।

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