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जयंती विशेष: मुंशी प्रेमचंद ने किसके कहने पर बदला अपना मूल नाम?

भारतीय उपन्यास के सम्राट, कलम के सिपाही और अपनी लेखनी से आम लोगों के अंतर्मन को छूने वाले मुंशी प्रेमचंद की आज जयंती है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद को आम आदमी का साहित्यकार भी कहा जाता है। चूंकि उनकी लगभग सभी कहानियां आम जीवन और उसके सरोकारों से ही जुड़ी होती थी, इसलिए उनके सबसे ज्यादा पाठक आम लोग रहे हैं।

दरअसल उन्होंने अपने सम्पूर्ण साहित्य लेखन में एक आम आदमी की पीड़ा को न केवल समझा बल्कि अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिये उसका निदान बताने का प्रयास भी किया। उन्होंने अपनी लगभग सभी रचनाओं में आम आदमी की भावनाओं, उनकी परिस्थितियों, समस्याओं तथा संवेदनाओं का मार्मिक शब्दांकन किया।

धनपत राय से बन गए मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद ने अपने लेखन के माध्यम से न सिर्फ दासता के विरुद्ध आवाज उठाई बल्कि लेखकों के उत्पीड़न के विरुद्ध भी सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने उपन्यासों और कहानियों के अलावा नाटक, समीक्षा, लेख, संस्मरण इत्यादि कई विधाओं में साहित्य सृजन किया। हालांकि कम ही लोग यह बात जानते हैं कि जो मुंशी प्रेमचंद हिन्दी लेखन के लिए इतने विख्यात रहे हैं, उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत उर्दू से की थी। मुंशी प्रेमचंद में शुरुआत में अपने मूल नाम धनपत राय के नाम से ही लिखते थे। लेकिन जब अपना पहला साहित्यिक कार्य उन्होंने गोरखपुर से उर्दू में शुरू किया था और 1909 में कानपुर के ‘जमाना प्रेस’ से उर्दू में ही उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सोज ए वतन’ प्रकाशित हुआ था, जिसकी सभी प्रतियां ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। उस समय में वे उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखने लगे थे। उनका लिखा कहानी संग्रह जब्त करने के बाद ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानारायण ने उन्हें परामर्श दिया कि भविष्य में अंग्रेज सरकार की नाराजगी से बचने के लिए नवाब राय के बजाय नए उपनाम ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना शुरू करें। इस प्रकार वे नवाब राय से प्रेमचंद बन गए। सुमित्रानन्दन पंत ने प्रेमचंद के बारे में कहा था कि प्रेमचंद ने नवीन भारतीयता और नवीन राष्ट्रीयता का समुज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत कर महात्मा गांधी के समान ही देश का पथ प्रदर्शन किया है।

प्रारंभिक जीवन

उत्तर प्रदेश में वाराणसी के लमही गांव के डाक मुंशी अजायबलाल के घर 31 जुलाई 1880 को जन्मे धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ मुंशी प्रेमचंद की आज हम 141 वीं जयंती मना रहे हैं। उन दिनों उनके परिवार के पास केवल छह बीघा जमीन ही थी, लेकिन बड़ा परिवार होने के कारण घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। कायस्थ कुल के धनपत राय का बचपन खेत-खलिहानों में ही बीता। हालांकि प्रेमचंद एक वकील बनना चाहते थे, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते उनका वह सपना पूरा नहीं हो सका। जब वे केवल आठ वर्ष के थे, तभी उनके सिर से मां का साया उठ गया था। पिता ने कुछ वर्षों बाद दूसरी शादी कर ली और महज 15 साल की आयु उनका विवाह हो गया, लेकिन वह ज्यादा लंबा न चल सका।

तमाम समस्याओं से जूझते हुए 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसके बाद एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। 1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और 1919 में बीए पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।

विधवा विवाह के रहे समर्थक

उस काल में मुंशी प्रेम चंद आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1905 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप विधवा शिवरानी देवी से किया।
उन्होंने आरंभिक लेखन जजमान पत्रिका में ही किया। वैसे तो उन्होंने 13 वर्ष की उम्र में लेखन कार्य शुरू कर दिया था, लेकिन उनके लेखन में परिपक्वता शिवरानी से विवाह के बाद ही आई थी, जिससे उनके लेखन की मांग बढ़ने लगी। उनकी दूसरी पत्नी शिवरानी ने ही बाद में उनकी जीवनी लिखी थी।

सरकारी नौकरी से त्यागपत्र

जिस काल खंड में मुंशी प्रेम चंद रहे वह भारतीय इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है। एक दिन वे बालेमियां मैदान में महात्मा गांधी का भाषण सुनने गए और उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और उसके बाद पूरी तरह से स्वतंत्र लेखन में जुट गए।

मुंशी प्रेमचंद की रचनाएं

अपने जीवनकाल में मुंशी प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें और हजारों की संख्या में लेखों व संस्मरणों की रचना की। उनके चर्चित उपन्यासों में बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), गोदान, कर्मभूमि, गबन, सेवा सदन, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा इत्यादि और कहानियों में पूस की रात, नमक का दरोगा, बूढ़ी काकी, ईदगाह, दो बैलों की कथा, कफन, मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, आत्माराम, बड़े भाई साहब, बड़े घर की बेटी, उधार की घड़ी, जुर्माना इत्यादि बहुत प्रसिद्ध रही। अपना अंतिम कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ उन्होंने वर्ष 1936 में लिखा, जो बेहद चर्चित रहा और आज भी आधुनिक क्लासिक माना जाता है।

अंग्रेज सरकार ने फिल्म के प्रदर्शन पर लगाई पाबंदी

प्रेमचंद ने फिल्म इंडस्ट्री में भी किस्मत आजमाने का प्रयास किया था, किन्तु वहां वे असफल रहे। हालांकि 1934 में उनकी पहली फिल्म ‘मिल मजदूर’ रिलीज भी हुई, जिसमें कामकाजी वर्ग की समस्याओं को इतनी मजबूती से उठाया गया था कि अंग्रेज सरकार ने घबराकर फिल्म के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी थी। उसके बाद प्रेमचंद समझ गए थे कि फिल्म इंडस्ट्री में के लिए वे नहीं बने और इसलिए 1935 में वापस वाराणसी लौट आए।

आखिरी समय

अपने जीवन के आखिरी दिनों में प्रेमचंद जलोदर नामक बीमारी से ग्रसित हो गए थे और 8 अक्टूबर 1936 को हिन्दी साहित्य जगत में अटल शून्य छोड़ चिरनिद्रा में लीन हो गए। जिस तरह मुंशी प्रेमचंद की लेखनी थी उसी तरह उनका जीवन भी है, जिसे शब्दों में लपेटा संभव नहीं है। आज भी उनकी लेखनी प्रासंगिक है और तमाम युवाओं को भी अपनी ओर खिंचती है।

‘हिन्दी साहित्य के ‘माइलस्टोन’

‘उपन्यास सम्राट’ के विशेषण से उन्हें शरद चंद्र चट्टोपाध्याय ने नवाजा था, लेकिन यह उपाधि मिलने के बाद भी पाठकों के बीच वर्तमान में भी उनका कहानीकार का रूप ही स्वीकारा और सराहा जाता है। प्रेमचंद ऐसे कहानीकार और साहित्यकार थे, जिन्हें आज भी सबसे ज्यादा पढ़ा जाता रहा है। उन्हें ‘हिन्दी साहित्य का माइलस्टोन’ भी कहा जाता है। आज भी हिन्दी भाषी दिग्गज लेखकों और साहित्यकारों का यही मानना है कि मुंशी प्रेमचंद जैसा कलमकार हिन्दी साहित्य में न आजतक कोई हुआ है और न होगा। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने समाज को रूढ़िवादी परम्पराओं और कुरीतियों से निकालने का प्रयास किया।

कहानी और उपन्यास पर बनने वाली फिल्म

प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर उनके निधन के बाद फिल्में भी बनी। 1938 में उनके एक उपन्यास ‘सेवासदन’ पर फिल्म बनी। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर फिल्में बनी। 1977 में उनकी कहानी ‘कफन’ पर फिल्मकार मृणाल सेन द्वारा ‘ओका ऊरी कथा’ नामक तेलुगू फिल्म बनाई गई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। उनकी दो कहानियों 1977 में उनकी एक कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’ पर बॉलीवुड फिल्मकार सत्यजीत राय ने फिल्में बनाई। 1980 में उनके उपन्यास ‘निर्मला’ पर एक टीवी धारावाहिक बना, जो काफी लोकप्रिय हुआ था।

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