महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी भले ही जवाहर लाल नेहरू रहे लेकिन आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे ही माने जाते हैं। विनोबा भावे, जिन्हें शांति और अहिंसा के प्रयासों के चलते बापू के बाद देश के दूसरे सबसे बड़े महात्मा के रूप में जाना गया, आजीवन देश की सेवा में लगे रहे। विनोबा जी का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में ब्राह्मण परिवार में हुआ। आज ही के दिन 11 सितंबर 1895 को जन्मे बालक विनोबा बचपन से ही विज्ञान विषय में तेज थे। उनका बचपन का नाम विनायक नरहरि भावे था। उनकी माताजी श्रद्धालु और चतुर महिला थीं। घर का माहौल भक्तिमय रहता, जिसका प्रभाव विनोबा जी पर भी पड़ा और उनमें अध्यात्म के बीच अंकुरित होने लगे।
आजादी के आंदोलन में हुए शामिल
25 मार्च 1916 को इंटरमीडियट पास करने के बाद विनोबा जी गांधीजी के आश्रम अहमदाबाद पहुंचे। कुछ समय वहां रहने के बाद विनोबा जी ने सूरत और फिर अंत में उत्तरप्रदेश पहुंचकर सन्यासी की तरह जीवन जीना शुरू किया। इसके बाद 1920 में वर्धा आश्रम के संचालन का कार्य उन्होंने अपने उपर ले लिया। गांधीजी की तरह सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के माध्यम से ब्रिटिशर्स के खिलाफ आंदोलन चलाए। ऐसे ही कामों के चलते नागपुर में झण्डा सत्याग्रह कर कारावास की सजा काटी। 1940 में प्रथम सत्याग्रही के रूप में विनोबा ने अपना भाषण पवनार में दिया। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन के सिलसिले में फिर जेल चले गये। 9 जुलाई 1945 को जेल से रिहा होकर पवनार आश्रम का भार पुन: अपने कन्धों पर ले लिया। 15 अगस्त को आजादी मिलते ही वो बंगाल में दीन-दुखियों के कष्ट निवारण के लिए निकल पड़े।
भूदान आंदोलन की शुरुआत
जानकार मानते हैं भूदान आंदोलन, संत बिनोवा भावे ने गांधी जी से प्रेरणा लेकर शुरू किया था। वह स्वयं महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। दरअसल विनोबा नाम उन्हें बापू ने ही दिया था। भूदान आन्दोलन सन्त विनोबा भावे द्वारा सन् 1951 में आरम्भ किया गया, एक स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। यह अपने तरह का देश में आजादी के बाद पहला आंदोलन था। विनोबा जी लोगों के अंदर के तत्व को जगाकर परिवर्तन लाना चाहते थे। वो डरा-धमकाकर या किसी लालच से लाए गए परिवर्तन को स्थायी नहीं मानते थे। यही वजह थी कि वो हमेशा लोगों के हृदय बदलने में लगे रहते थे। विनोबा जी की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी सफल कोशिश की जाए। 20वीं सदी के पचासवें दशक में भूदान आंदोलन को सफल बनाने के लिए विनोबा जी ने गांधीवादी विचारों पर चलते हुए रचनात्मक कार्यों और ट्रस्टीशिप जैसे विचारों को प्रयोग में लाया। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था।
क्या था भूदान आंदोलन
इस आंदोलन में यह मांग की गई थी कि जमीनदारों को उनके जमीन का छटवां हिस्सा भूमिहीनों को दान करना चाहिए। 1951 में नक्सलबाड़ी समूह ने आंध्रप्रदेश के तेलंगना में जमीनदारों के खिलाफ सहस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया। जिसके बाद विनोबा जी ने अपना ‘भूदान आंदोलन’ और अधिक तेज और व्यापक किया। आंदोलन को तेज करने के लिए प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से मिलने के लिये वो दिल्ली चलकर ही आए। उसके बाद विनोबा जी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र ऐसे अनेक राज्यों में 1951 से 1964 तक, कुल 14 साल विनोबा जी ग्रामदान के आंदोलन के लिये देशभर में पैदल घूमे। विनोबा जी 55 की उम्र से 68 साल की उम्र तक 40 हजार मील चलकर देश की जनता से रूबरू हुए और उनकी परेशानियों को हल करने का प्रयास किया। ग्रामदान, संपत्तीदान जैसे अन्य आंदोलन भी उन्होंने चलाये।
मृत्यु को किया धारण
1982 के नवंबर महीने में जब उनकी हालत खराब होने लगी और उन्हे स्पष्ट अंदाजा हो गया कि मृत्यु नजदीक है। इसके बाद उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप 15 नवम्बर, 1982 को यह नश्वर मनुष्य की देह उन्होंने त्याग दी। उन्होंने मौत का जो रास्ता अपनाया था उसे प्रायोपवेश कहते हैं, जिसके अंतर्गत इंसान खाना-पीना छोड़ अपना जीवन त्याग देता है। गांधी जी को अपना मार्गदर्शक समझने वाले विनोबा भावे ने समाज में जन-जागृति लाने के लिए कई महत्वपूर्ण और सफल प्रयास किए। उनके सम्मान में उनके निधन के पश्चात हजारीबाग विश्वविद्यालय का नाम विनोबा भावे विश्वविद्यालय रखा गया। उन्हें राष्ट्र की अनथक सेवा के लिए देश के सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से भी नवाजा गया था।
