भारतभूमि कभी वीरों से रिक्त नहीं रही, एक से बढ़कर एक देशभक्त ने इस मिट्टी में जन्म लेकर देशवासियों को धन्य किया है। 23 जुलाई को ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का इस भूमि पर जन्म हुआ था। वे 1906 में मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के अंतर्गत ग्राम भावरा में जन्में थे। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के बदरका ग्राम के रहने वाले थे, लेकिन प्राकृतिक और राजनैतिक विषम परिस्थितियों के चलते उन्होंने अपना पैतृक ग्राम छोड़ा और अनेक स्थानों से होकर 1905 के आसपास उनके पिता सीताराम तिवारी झाबुआ आ गए। यहीं बालक चन्द्रशेखर का जन्म हुआ।
अंग्रेजों के प्रति जागा गुस्सा
पिता सीताराम तिवारी और माता जगरानी देवी के परिवार ने 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों का दमन झेला था। वह सामूहिक दमन था, गांव के गांव फांसी पर चढ़ाये गए थे। अंग्रेजों के इस दमन की परिवार में अक्सर चर्चा होती थी। बालक चन्द्र शेखर ने वे कहानियां बचपन से सुनी थीं। इस कारण उनके मन में अंग्रेजी शासन के प्रति एक विशेष प्रकार की वितृष्णा का भाव जागा था, उन्हें अंग्रेजों पर गुस्सा आता था।
बचपन में ही मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त थे
भांवरा गांव आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र था। अन्य परिवार गिने चुने ही थे। ये परिवार वही थे, जो आजीविका या नौकरी के लिये वहां आकर बसे थे। इस कारण बालक चन्द्रशेखर की टीम में अधिकतर बालक आदिवासी थे। इसका लाभ यह हुआ कि बालक चन्द्र शेखर ने धनुष बाण चलाना, निशाना लगाना और कुश्ती लड़ना बचपन में ही सीख लिया था। उन दिनों आदिवासी गांवो के आसपास के वन्यक्षेत्र में वन्यजीवों का बाहुल्य हुआ करता था। वन्यजीवों की अनेक प्रजातियाँ हिंसक भी होती थीं इसलिये गांव के निवासियों को आत्मरक्षा की कला बचपन से आ जाती थी। बालक चन्द्र शेखर भी इन्हीं विशेषताओं को सीखते हुये बड़े हुए। परिवार का वातावरण राष्ट्रभाव, स्वायत्ता और स्वाभिमान के बोध भाव से भरा था। गांव का प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण से बालक चन्द्रशेखर मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त हुए।
जब उनके नाम के साथ जुड़ा ‘आजाद’
1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन हुये। किशोरवय चन्द्रशेखर ने इसमें भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। उनकी दृढ़ता और संकल्पशीलता का परिचय तब मिला जब वे मात्र चौदह साल के थे। यह 1920 की घटना है जब वे आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनने लगा था। गांव-गांव में बच्चों की प्रभात फेरी निकालने का क्रम चल रहा था। अनेक स्थानों पर प्रशासन ने प्रभात पारियों पर पाबंदी लगा दी थी। झाबुआ जिले में भी पाबंदी लगा दी गई थी, लेकिन इस सबके वाबजूद भावरा गांव में बालक चन्द्रशेखर ने प्रभात फेरी निकाली। चन्द्रशेखर ने किशोर आयु में ही किसी प्रतिबंध की परवाह नहीं की और अपने मित्रों को एकत्र कर कक्षा का बहिष्कार किया और खुलकर प्रभातफेरी निकाली। प्रभात फेरी में रामधुन के साथ आजादी के नारे भी लगाये। बालक चन्द्र शेखर और कुछ किशोरों को पुलिस ने पकड़ लिया। बच्चो को चांटे लगाये गये, माता-पिता को बुलवाया गया, कान पकड़ कर माफी मांगने को कहा गया। लोग डर गये बाकी बच्चो को माफी मांगने पर छोड़ दिया गया, लेकिन चन्द्रेखर ने न माफी मांगी और न ही इसे गलती के रूप में स्वीकार किया, उल्टे भारत माता की जय के नारे लगाए। इससे नाराज पुलिस ने उन्हें डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया और पन्द्रह बेंत मारने की सजा सुनाई गई। उनका नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम “आजाद” बताया । पिता का नाम “स्वतंत्रता” और घर का पता “जेल” बताया । यहीं से उनका नाम चंद्र शेखर तिवारी के बजाय चन्द्र शेखर आजाद हो गया।
छोटी सी उम्र में देश की नजरों में आए
बेंत की सजा देने के लिये उनके कपड़े उतारकर निर्वसन किया गया। खंबे से बांधा गया और बेंत बरसाये गए। हर बेंत उनके शरीर की खाल उधेड़ता रहा और वे भारत माता की जय बोलते रहे। बारहवें बेंत पर अचेत हो गये फिर भी बेंत मारने वाला न रुका। उसने अचेत देह पर भी बेंत बरसाये। लहू लुहान चन्द्रशेखर को उठाकर घर लाया गया। उन्हे स्वस्थ होने में, और घाव भरने में एक माह से अधिक का समय लगा। इस घटना से चन्द्रशेखर आजाद की दृढ़ता और बढ़ी । इसका जिक्र पर पूरे भारत में हुआ । सभाओं में उदाहरण दिया जाने लगा। महात्मा गाँधी ने भी इस घटना की आलोचना की और अपने विभिन्न लेखों में इस घटना का उल्लेख किया है।
बनारस में बने पूर्ण क्रांतिकारी
अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर चन्द्रशेखर पढ़ने के लिये बनारस आये। उन दिनों बनारस क्रांतिकारियों का एक प्रमुख केन्द्र था। यहां उनका परिचय सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मन्थ नाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी से हुआ और वे सीधे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए। आंरभ में उन्हे क्रांतिकारियों के लिये धन एकत्र करने का काम मिला। यौवन की देहरी पर कदम रख रहे चन्द्र शेखर आजाद ने युवकों की एक टोली बनाई और उन जमींदारों या व्यापारियों को निशाना बनाते जो अंग्रेज परस्त थे। इसके साथ यदि सामान्य जनों पर अंग्रेज सिपाही जुल्म करते तो बचाव के लिये आगे आते। उन्होंने बनारस में कर्मकांड और संस्कृत की शिक्षा ली थी। उन्हें संस्कृत संभाषण का अभ्यास भी खूब था।
चकमा देने के लिए रखा दूसरा नाम
अपनी क्रांतिकारी सक्रियता बनाये रखने के लिये उन्होंने अपना छद्म नाम हरिशंकर ब्रह्मचारी रख लिया और झांसी के पास ओरछा में अपना आश्रम भी बना लिया। बनारस से लखनऊ कानपुर और झांसी के बीच के सारे इलाके में उनकी धाक जम गयी थी। वे अपने लक्षित कार्य को पूरा करते और आश्रम लौट आते। क्रांतिकारियों में उनका नाम चन्द्र शेखर आजाद था तो समाज में हरिशंकर ब्रह्मचारी। उनकी रणनीति के अंतर्गत ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगतसिंह अपना अज्ञातवास बिताने कानपुर आये थे।
अंग्रेजों को किया खूब परेशान
1922 के असहयोग आन्दोलन में जहां उन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया वहीं 1927 के काकोरी कांड, 1928 के सेन्डर्स वध, 1929 के दिल्ली विधान सभा बम कांड, और 1929 में दिल्ली वायसराय बम कांड में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। यह चन्द्रशेखर आजाद का ही प्रयास था कि उन दिनों भारत में जितने भी क्रांतिकारी संगठन सक्रिय थे सबका एकीकरण करके 1928 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों की सूचना तब अंग्रेज सरकार को लग रही थी। उन्हे पकड़ने के लिये लाहौर से झांसी तक लगभग सात सौ खबरी लगाये गए। इसकी जानकारी चन्द्रशेखर आजाद को भी लग गई थी अतएव कुछ दिन अप्रत्यक्ष रूप से काम करने की रणनीति बनी। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी के रूप में ओरछा आ गए। उस समय के कुछ क्रांतिकारी भी साधु वेष में उनके आश्रम में रहने लगे थे, लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन के लिये धन संग्रह का दायित्व अभी भी चन्द्रशेखर आजाद के पास ही था। वे हरिशंकर ब्रह्मचारी वेष में ही यात्राएं करते और धन संग्रह करते। धनसंग्रह में उन्हे पं मोतीलाल नेहरू का भी सहयोग मिला।
इलाहाबाद से जुड़ाव
वे जब भी आर्थिक सहयोग के लिये प्रयाग जाते पं मोतीलाल नेहरू से मिलने की योजना बनती। वे हमेशा इलाहाबाद के बिलफ्रेड पार्क में ही ठहरते थे। वे संत के वेश में होते थे और यही पार्क उनके बलिदान का स्थान बना। वह 27 फरवरी 1931 का दिन था। पूरा खुफिया तंत्र उनके पीछे लगा था। वे 18 फरवरी को इस पार्क में पहुंचे थे। यद्यपि उनके पार्क में पहुंचने की तिथि पर मतभेद हैं, लेकिन वे 19 फरवरी को पं मोतीलाल नेहरु की तेरहवीं में शामिल हुए थे। तेरहवीं के बाद उनकी कमला नेहरू से भेंट भी हुईं। कमला जी यह जानती थीं कि पं मोतीलाल नेहरू क्रांतिकारियों को सहयोग करते थे।
आजाद ही जिए और आजाद ही मरे
27 फरवरी को चन्द्रशेखर आजाद पार्क में किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। किसी ने पुलिस को सूचना दे दी। वो पुलिस से बुरी तरह घिर गए। पुलिस द्वारा उन्हें घेरने से पहले सीआईडी ने पूरा जाल बिछा दिया था। मूंगफली बेचने, दांतून बेचने आदि के बहाने पुलिस पूरे पार्क में तैनात हो गयी थी। एनकाउन्टर आरंभ हुआ, पर ज्यादा देर न चल सका। यह तब तक ही चला जब तक उनकी पिस्तौल में गोलियां रहीं। वे घायल हो गये थे और अंतिम गोली बची तो उन्होंने अपनी कनपटी पर मार ली। वे आजाद ही जिए और आजाद ही विदा हुए।