सफलता के लिए जब कदम बढ़ाने की योजना होती है तो उसके मार्ग खोजने की एक चुनौती होती है। सफलता को लेकर अंतर्मन में छोटी और बड़ी बातों का व्योम होता है। सोचते, समझते, अमल करते इसी व्योम में बहुत कुछ निर्णित होता रहता है। जो लोग इस बात को नहीं जान पाते हैं उन्हें अपने मनोविज्ञान को सहज और अवलोकन को सूक्ष्म करने की आवश्यकता होती है। ये सब सोचने की बात होती है कि सफलता के अपने रास्ते हैं। सफलता के लिए जिन मार्ग पर चलना है, क्या वास्तव में उन रास्तों को वास्तव में चुना गया है? और जिन्हें चुना गया है क्या उसपर चलने का मानस भी स्पष्ट है। यही स्पष्टता हमारी बुद्धि और जीवंतता से निर्मित होती है। लोग एक अलग तरह की दौड़ में दिखते हैं और उसे सफलता की दौड़ कहकर स्वयं को बांध कर प्रतिबंधित कर लेते हैं। परिणाम कुछ भी हो वे लोग नहीं जानना चाहते हैं कि आखिर वो किस संदर्भ में और क्यों सफल होना चाहते हैं? इन सबकी समझ का सामान्य ताना-बाना जान नहीं पड़ता। इस बात की समझ का लोगों में संशय भी दिखता है। आप देखें कि लोगों में सहज होने की सभ्यता नहीं दिखती! कारण शायद यह भी है कि अब लोग सरल मार्ग चुनने की संस्कृति में रहना ही नहीं चाहते। कुछ किशोर और युवाओं को देखकर कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि वे कुछ हासिल भी नहीं करना चाहते हैं। उन्हें एक अलग तरह की आकुलता और दृष्टि संबंधी धुंध के वलय घेरे रहते हैं। युवा इसे भी मुकुट की तरह तबज्जो देते हैं। उन युवाओं में स्वयं एक एकाकी समूह होता है जो उन्हें वास्तविकता के समाज और सामाजिकता से बहुत दूर व सीमित रखता है। नि:संदेह वे एकाग्रता में नहीं बल्कि एक विचित्र व्यक्तिगत मूर्छा में होते हैं। वे सामूहिकता के बजाए व्यक्तिनिष्ठा में घिरे होते हैं। इसलिए उनसे सार्वजनिक अर्पण का प्रतिरूप स्वीकार भी नहीं हो सकता है। वैसे इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं को निजी तौर पर देखना चाहिए। किसी व्यक्ति में सार्वजनिकता निभाने के स्तर को तो निजी ही नहीं बल्कि सूक्ष्म तौर पर देखा और परखा जाना चाहिए। वैसे इस ओहापोह के बीच उनकी सफलता की अवस्था को जानना, समझना और नीति-रणनीति पर गहन विचार होना चाहिए। हमें हमारी योजना और कार्यों का योजक होना चाहिए। बिल्कुल कैल्कुलेटर की तरह योजक। क्योंकि इसमें कार्य की गुणवत्ता और प्रबंधन बेहद उम्दा होता है। उसे याद नहीं दिलाना पड़ता और न वह कठिन या सरल में कोई भेद करता है। वो केवल सूत्र पर काम कर रहा होता है, बस और कुछ भी नहीं।
हमें हमारी कार्य योजनाओं कुछ इसी तरह नजर बनाएं रखना चाहिए। जीवन के तमाम संकट के बावजूद अनेक ऐसे उदाहरण रहे हैं जहां सरलता से बातें समझी जा सकती हैं। इसके लिए हमें अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों पर अधिकाधिक ध्यान देना चाहिए। अपनी राह चलने की प्रकृति व प्रवृत्ति में कभी-कभार उतार-चढ़ाव दिख सकते हैं। इनसे इतर हमें सफलता के सफर में कठिनाइयों के हिसाब से सहज चलने का तरीका तय करना चाहिए। इन तरीकों का सूत्र जानने की समझदारी ही सफलता का मार्ग बनाती है। दुनिया की किसी भी कठिन परिस्थिति में अपनी उत्कृष्ट बुद्धि और चेतना का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए। हमें सूर्य से प्रेरणा लेनी चाहिए। उसमें एक निरंतरता है। वह रोज चमकता है इसीलिए उसका दर्जा अतुलनीय है। वह अन्य आग, अलाव या अलंग की तरह थोड़े यत्न का ताप नहीं बनता। शाश्वत सत्य है कि सूर्य ही प्रखर सर्वज्ञ प्रज्जवलित है। इसी कारण दुनिया ने सदियों से स्वीकारा है, वह निसर्ग की सर्वोत्तम शक्ति है। ठीक इसी तरह हमें हमारे कर्म, क्रम, उपक्रम को पराक्रम की निरंतरता में रखना चाहिए। गति ही प्रगति का वास्तविक स्रोत होती है। गति न हो तो चित्त के गहन चिंतन को जानने का यत्न करना चाहिए। निरूत्तर होने की स्थिति के बनने की बजाए स्थिरता रखना चाहिए। तर्क और वैज्ञानिकता से बल लें। साथ ही आध्यात्म से व्यापक क्षितिज का एहसास बनाए रखना चाहिए। यह आत्मोन्नति के लिए ठोस पर्याय है। इसके माध्यम से मानस की एकाग्रता और निरंतरता बनाना चाहिए। जबकि इसके बाहर निकलकर सामूहिक तौर पर सामासिकता व सह-अस्तित्व बहुत जरूरी है। यही हमें सामाजिक रूप से संपन्न और समृद्ध करता है। इस समूचे भाव से सफलता के मार्ग पर ध्यानपूर्वक चलना ही विकसित मानव और सभ्यता का प्रमाण बनता है। शेष, जीवन मात्र ही मानव जीवन का सफलतम प्रमाण तो बिल्कुल नहीं है।
- डॉ. संदीप कुमार वर्मा
मीडियाविद्
